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________________ जैनधर्मसिंधु जावजीवतक है, इनका जी फेर प्रमाण दिनदिनमें करूं, ॐ ।३४ । इतने मात्र मणि, कनक, रूपा, मोती नूषण, अंगऊपर धारण करूं. इतने मात्र गीत, नृत्य, वाजंत्र, मुजको उपनोगवास्ते कल्पे. । ३५ । इतिसप्तमव्रतम् ॥ वैरिका घात, वैर लेना, इत्यादिक आर्त, रौष, ध्यान, श्रदाहिएयताविषे पापोपदेशका देना, श्नको वर्जु. । ३६ । श्रदाक्षिण्यताविषे हिंसाकारी गृहोप करणादि देना तथा कामशास्त्रकापढना,जूआखेलना, मद्य पीना, श्नको परिहरु. । ३७) हिंगोलेका विनो द, जक्त (नोजन ), स्त्री, देश, और राजा, इनकी स्तुति, वा निंदा; पशु पदीका युक, अकालमें नींद लेनी, संपूर्ण रात्रिमें सोना, । ३० । इत्यादि प्रमाद स्थानक, अनर्थादंमनामक गुण व्रत में वर्जु. । इति अष्टमव्रतम् ॥ एक वर्ष में इतने सामायिक कलं. तिनवमव्रतम्॥ इतने योजन मेरेको दिन, वा रात्रिमें दशोदिशा ोंमें जाना थाना कल्पे. । शतिदशमव्रतम् । एक वर्षमें इतने पौषध करु. इत्येकादशवतम् ॥ साधुओंको संविनाग नोजन वस्त्र आदिकसे करूं. ४० । प्रथम यतिको देके और नमस्कार करके पीछे ___* दिन २ में जो प्रमाण करना है, सो दशम देसावकाशिकवतांतर्गत जाणना.॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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