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________________ ७५० जैनधर्मसिंधु. इतना कांसा, इतना तांबा, इतना लोहा, इतना तरुया, इतनासीसा, अपने घरमे रखना.। १६ । इतने दास, इतनी दासी, इतने सेवक-नौकर और इतने दासचेटकोंकी संख्यां मुजको रखनी कल्पे. । १७ । इतने हाथी, इतने घोडे, इतने बलद, इतने ऊंट, इतने गाडे, इतनी गौ, इतनी महिषी (जैस) । १७ । इतनी बकरी, इतनी नेमें, और इतने हल रखने मुफको कल्पे. और अमुक अमुक कर्मका मुजको नियम हो.। १ए । इति पंचमव्रतम् ॥ दसोंही दिशायोंमें अपने वशसें इतने योजन प्रमाण जावजीव गमन करना, और तीर्थयात्रामें जानेकी जयणा । २० । इतिषष्ठव्रतम् । कर्ममें लोगोपनोगमें, खरकर्ममें, पंदरा कर्मादा नमें, कुप्पोल आहार अज्ञात फूल फल श्नको वर्जु. । १। पांच ऊंबर ५, चार महा विग, हिम १७, विष ११, कारक १२, सर्व जातकी मट्टी १३, रात्रिनोजन १४, बहुबीजा १५, अनंतकाय १६, सं धान (बोल आचार) १७.। २२ । घोलवमां (विदल) १०, वृंताक १ए, अज्ञात फल फूल २० तुब फल २१ और चलितरस २२, ये बावीस वस्तुयोको वर्जु. । २३ । वर्जके अन्य फल फूल पत्रमेसें अमुक अमुक प्राणांतमें नी, नदण न करूं. २४ । इतने मात्र प्रासुक अनंतकायकी मुझको जयमा हो, इतने
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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