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________________ जैनधर्मसिंधुः दि-न प्रमाणं । यहि होवे तो, वेदको प्रमाणता नही. क्योंकि, । नवेछाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता। वचनोंकीप्रमाणता, श्राप्त पुरुषोंके श्राधीन है.॥११॥ ___ असर्वोक्त धर्म प्रमाण नही यही कहते हैं.॥ मिथ्यादृष्टि असर्वज्ञोंने अपनी बुद्धिसें कहा हुश्रा, पशुमेध, अश्वमेध, नरमेधादि यझोंके कथनसें, और अपुत्रस्य गतिर्नास्ति इत्यादि कथनसें, जीववधादि कोंकरके जो धर्मही है, ऐसा अजाण लोकोंमें विशे ष प्रसिक है. तो जी, जवज्रमण (संसारज्रमण) का कारण है. यथार्थ धर्मके अनावसे ॥ १५ ॥ ___ कुदेवकुगुरुकुधर्मनिंदामाह ॥ सरागोपि० यदि जगत्में सरागः रागद्वेषादि सहित नी देव होवे, अब्रह्मचारी मैथुनाजिलाषीनी गुरु होवे, और दया हीन जी धर्म होवे, तो, हाहा ! इति खेदे बमा जारी कष्ट है, संसारलदण जगत् नष्ट हुआ, उर्ग तिमें पमनेसें. क्योंकि, पूर्वोक्त देव गुरु धर्मकरके मुबनाही होवे. यतः उक्तं ॥ रागी देवो दोसी देवो तामिसूमंपि देवो रत्ता मत्ता कंता सत्ता जे गुरू तेवि पुजा। मजे धम्मो मंसे धम्मो जीव हिंसाइ धम्मो हाहा कष्टं नको लोश्रो अट्टमटुं कुणंतो ॥१॥१३॥ ऐसें पूर्वोक्त अदेव,अगुरु, अधर्मकापरित्याग करके, सत्य देव, गुरु, धर्मकी, आस्था करनी, तिसका नाम
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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