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________________ ७३६ जैनधर्मसिंधु. मस्तक न देखा, तब हाथीके मस्तकको लायके विनायकके मस्तकके स्थानपर चेप दिया, जिसवा स्ते विनायकका (गणेशका) नाम “ गजानन" प्रसिद्ध हुथा. इत्यादि-यदि ईश्वर (महादेव) सर्व ज्ञ होता तो, पार्वतीका पुत्र जाणके विनायकका मस्तक कनी न बेदन करता. यदि बेदा, तो जगतमें विद्यमान तिस मस्तकको क्यों न देखा ? इसवास्ते ऐसे अधूरेशानवालेको देव न कहिये । तथा — जित रागादिदोषः' जे संसारके मूलकारण राग द्वेष काम क्रोध लोन मोहादिक दोष, तिन सर्वको जिसने जीते हैं, निर्मूल किये हैं, तिसको देव कहिये. जिस में रागादि दोष होवे, तिसको अस्मदादिवत् संसा री जीवही कहिये, तिसमें देवपणा न होवे । तथा 'त्रैलोक्यपूजितः' वर्गमर्त्यपातालके स्वामी इंसादि क परम नक्तिकरके जिसको वांदे, पूजे, नमस्कार करे, सेवे, सो देव कहिये. परंतु कितनेक इसलोकके अर्थीयोंके वांदनेसें, वा पूजनादिकसें देवपणा नही होता है. । तथा' यथा स्थित सत्यपदार्थका वक्ता, सो देव कहिये, परंतु जिसका कथन पूर्वापरविरोधि होवे, और विचारते हुए सत्य २ मिले नही, सो देव न कहिये. ॥ देवो हत् परमेश्वरः ये पूर्वोक्त चार गुण पूर्ण जिसमें
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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