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________________ ७३४ जैनधर्मसिंधु. मिथ्या कुशास्त्रोंके पढनेसें कुदेव कुगुरु कुधर्मके ऊप र आस्था दृढ है, जिससे ऐसा जानता है कि, जो कुब मैने समजा है सोही सत्य है, औरोंकी समऊ ठीक नही है, जिसको सत्यासत्यकी परीक्षा करने का अब मन जी नहीं है, और जो सत्यासत्यका विचार भी नही करता है. यह मिथ्यात्व, दीक्षित शाक्यादि श्रन्यमतममत्वधारीयों को होता है. वे अपने मन में ऐसें जानते हैं कि, जो मत हमने अंगिकार किया है, वोही सत्य है; और सर्व मत झूठे हैं. ऐसें जिसके परिणाम होवे, सो श्रजिय दिक मिथ्यात्व है. ( 2 ) दूसरा वना जिग्रहिक मिथ्यात्व, सो सर्व मतोंको आच्छा जाणे, सर्व मतोंसें मोक्ष है, इस वास्ते किसीको बुरा न कहना सर्व देवोंको नम स्कार करना, ऐसी जो बुद्धि, तिसको अनाजिय हिक मिथ्यात्व कहते हैं. यह मिथ्यात्व जिनोंने को दर्शन ग्रहण नहीं करा ऐसें जो गोपाल बाल कादि तिनको है. क्योंकि, यह अमृत और विषको एकसरिखे जाननेवाले हैं. (३) तीसरा अनिनिवेशिक मिथ्यात्व, सो जो पुरुष जानकरके झूठ बोले, प्रथम तो अज्ञानसें किसी शास्त्रार्थको मूल गया, पीछे जब कोई विद्वा न् कहे कि, तुम इस विषयमें भूलते हो, तब अप
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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