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________________ ७१७ जैनधर्मसिंधु. मास, दिन, नदात्र, लग्न शुद्धिके हुए, विवाहदीक्षा प्रतिष्ठावत्, शुज लग्नमें गुरु तिसके घरमें शांतिक पौष्टिक करके, फेर देवघरमें, शुज आश्रममें, अन्य त्र, वा, यथाकल्पित समवसरणको स्थापन करे. । पीने स्नान करके खघरमें महोत्सवसहित आये हुए श्रावकको पूर्वानिमुख गुरु, अपने वामे पासें स्थापके ऐसें कहे-कैसे श्रावकको-सकद श्वेत वस्त्र और श्वेत उत्तरासंग धारण किया है जिसने, तथा मुखवस्त्रिका हाथमें धारण करी है जिसने, तथा जिसकी चोटी बांधी हुई है, चंदनका मस्तकमें तिलक करा है जिसने, खवर्णानुसार जिनोपवीत वा उत्तरीय, वा उत्तरासंग धारण किया है जिसने ऐसे श्रावकको-क्या कहे सो कहते हैं। “ सम्मत्तंमि उलके, थश्या नरयतिरियदारा॥ दिवाणि माणुसाणि अ, मुरकसुहाई सहीणाई॥१॥" अर्थः-सम्यक्त्वके लान हुए, नरकतिर्यंचगतिके छार ढांके है, और देवता मनुष्य मोदके सुख स्वाधीन है.। पीछे गुरुकी आज्ञासे श्राधजन, नालि केर अदत सुपारीसें पूर्ण हस्त करके परमेष्ठिमंत्र पढता हुया समवसरणको तीन प्रदक्षिणा करे.। पीडे गुरुके पास आयकर, गुरु श्राफ दोनोही या पथिकीपमिकमे. । पीछे आसन उपर बैठे गुरुके आगे, श्राइजन ऐसें कहे ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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