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________________ अष्टमपरिबेद. ७१३ हुए है; परं संप्रति कालमें तो, जिनप्रवचन, श्राचार्य नेही धारण करा है.॥ अब प्रकारांतरकरके गुरुके उत्तीस गुण कहते हैं । श्राचारविनय, श्रुत विनय, विदेपना विनय, दोषका परिघात, एवं चार प्रकारके विनयकी प्रतिपत्ति कर नेवाले गुरु होवे.अथवा सम्यक्त्व, शान, चारित्र, इनप्रत्येकके श्रावनेद हैं; एवं २४, और तपके छादश १२ नेद हैं, ऐसें आचार्यके बत्तीस गुण होते हैं। अथवा आचारादि श्राप , और दश प्रकारका स्थितकल्य १० छादश १५ तप और षडावश्यक ६ ये बत्तीस गुण श्राचार्यके हैं। अथवा संविग्न १, मध्यस्थ २, शांत ३, मृा-कोमलस्वजाववाला ४, सरल ५, पंडित ६, सुसंतुष्ट , गीतार्थ ७, कृतयोगी ए, श्रोताके नावको जानने वाला १०, व्याख्यानादिलब्धिसंपन्न ११, उपदेशदे नेमें निपुण १२, श्रादेयवचन १३, मतिमान् १४, विज्ञानी १५, निरुपपाति १६, नैमित्तिक १७, शरीरका बलिष्ठ १७, उपकारी ९ए, धारणाशक्तिवाला २०, बहुत कुछ जिसने देखा २१, नैगमादि नयमतमें निपुण २२, प्रियवचनवाला २३, अच्छे मधुर गंजीर स्वरवाला २४, तप करणेमें रक्त २५, सुंदर शरीर वाला ५६, शुन्न नली प्रतिनावाला २७, वादियोंको
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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