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________________ ११० जैनधर्मसिंधु. पूर्वोक्त रीतिसें अंचलग्रंथन करके अनेक वस्तुदान पूर्वक तिसही श्राबरसें खगृहको पहुंचावे. । पीले सात रात्रिपर्यंत, वा मासपर्यंत, वा मासपर्यंत, वा वर्षपर्यंत स्वकुलसंपत्तिदेशाचारानुसार महोत्सव कर ना. सात रात्रिके अनंतर, वा मासअनंतर, कुला चारानुसारकरके कन्याके पदमें पूर्वोक्त रीतिकरके मातृविसर्जन करना.-गणपतिमदनादिविसर्जन विधि लोकमें प्रसिद्ध है. और वरपदमें कुलकर विसर्ज नविधि लिखते हैं। कुलकरस्थापनानंतर, नित्य कुल करकी पूजा करनी. । विसर्जनकालमे कुलकरोंका प्रजन करके, गुरु प्रर्ववत् “अमुककुलकराय" इत्यादि संपूर्णमंत्र पढके “ पुनरागमनाय स्वाहा" ऐसें सर्वकुलकरोंको विसर्जन करे. ॥ पीछे यह पढे. " श्राशाहीनं क्रियाहीनं मंत्रहीनं च यत्कृतं ॥ तत्सर्वं कृपया देव दमख परमेश्वर ॥१॥" इतिकुलकर विसर्जन विधिः॥ पीछे मंडलीपूजा, गुरुपूजा, वासदेपादि पूर्ववत् । साधूओंको वस्त्र पात्र देना.। ज्ञानपूजा करणी। जैन ब्राह्मणोंको याचकोकों अपर मागनेवालोंको यथासंपत्तिसें दान करणा.। ___ तथा देशकुलसमयांतरमें विवाहलग्नके प्राप्त हुए, वरको श्वशुरके घरको प्राप्त हुए, षट् (६) श्राचार करते हैं. प्रथम अंगणमें श्रासन देना। श्वशुर कहे
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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