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________________ A. ६एज जैनधर्मसिंधु. मोहोसि, तत् एहि एकत्वमिदानी अँई 3॥" इति हस्तबंधनमंत्रः॥ ___ यहां समयांतरमें (वैदिक मतमें) मधुपर्क नक्षण, देशांतरमें वरको दो गौयां देनी, और कुलांतरमें कन्याको श्रारण पहिरावणे, इत्यादि करते हैं । पीले वधुवरको मातृघरमें बैठे हुए, कन्याके पदी, वेदिकी रचना करें; तिसका विधि यह है. ॥ कितनेक काष्ठस्तंज काष्टाच्छादनोंकरके चौकूणी वेदी करते हैं; और कितनेक चारों कूणोंमें स्वर्ण, रूप्य, ताम्र,वामाटीके सात सात कलशोंको ऊपर लघु, लघु, अर्थात् प्रथम बमा उसके ऊपर बोटा, उसके ऊप र फिर बोटा, एवं स्थापन करके चारों पासे चार चार श्रार्ड वांसोंसे बांधके वेदि करते हैं. चारों बारणोंमें वस्त्रमय, वा काष्ठमय तोरण, और चंदन मालिका बांधते हैं; और अंदर त्रिकोण अग्निका कुंम करते हैं.। वेदी बनाया पीने गृहस्थगुरु, पूर्वो क वेष धारण करके वेदिकी प्रतिष्टा करे.। तिस का विधि यह है. ॥ वास पुष्प अक्षतों से हाथ जरके ॥ ____ नमः क्षेत्रदेवतायै शिवायै दाँ दी हुँ दाँ दः इह विवाहमंडपे आगच्छ २ श्ह बलिपरिजोग्यं गृह्ण नोगं देहि,सुखं देहि, संततिं देहि यशोदेहि,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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