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________________ ६ए। जैनधर्मसिंधु. षेक, कुलकर गणेशादि स्थापन, कंकणबंध, अन्य विवाहके उपचारदिक सर्व, वधूवरको चंबलके हुए, विवाहवाले नक्षत्र में करना. । तथा धूलिजक्त, कौर जक्त, सौनाग्यजलल्यावन प्रमुख, कर्म, मंगलगीत वाजंत्रादिसहित देशाचार कुलार विशेषसें करना.। पी जेकर, वर, अन्य ग्रामांतर, नगरांतर, वा देशांतरमें होवे तो, तिसकी गमनयात्रा (जान जनेत बरात) कन्याके निवासस्थानप्रति करनी; तिसका विधि यह है.॥ - प्रथम एक दिनमें मातृपूर्वक सर्व लोकोंको जोजन देना; पीछे दूसरे दिन सुनात होके, चंदन का लेपन करके, वस्त्रगंधमादयादिकरके अलंकृत होके, मुकुट नूषित शिरको करके, घोडेपर, वा हाथी पर, वा पालखीमें श्रारूढ होके, वर चले. । तिसके समीप, अच्छे वस्त्रोंवाले, प्रमोदसहित, पानबीडे चावे हुए, संबंधी ज्ञातिजन, अपनी ५ संपदानु सार घोडेआदि ऊपर चढे हुवे, वा पगोंसें चलते हुए, वरकेसाथ चलें । दोनों पासे, मंगलगानमें तत्पर ऐसी झातिकी नारीयां चलें और आगे जैन ब्राह्मणलोक, गृहशांतिमंत्र पढते हुए चलें. ॥ __“ अँह श्रादिमोहन, श्रादिमो नृपः, श्रादि मो यंता, श्रादिमो नियंता, श्रादिमो गुरुः, आदिमः स्रष्टा, आदिमः कर्ता, आदिमो जर्ता, श्रादिमो
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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