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________________ अष्टमपरिच्छेद. ६८७ · बंध, सो आसूर विवाह ॥ २ ॥ हवसे कन्या ग्रहण करे सो राक्षस विवाह ॥ ३ ॥ सुप्त, और प्रमत्तकन्याको ग्रहण करनेसें, पैशाच विवाह कहा जाता है. ॥ ४ ॥ माता, पिता, गुरु, यादिकी आज्ञा न होनेसें इन चारों विवादोंको विवाह पुरुष पापविवाह कहते हैं. ॥ तथा ब्रहाय ? २, और दैवत ३, येह तीन विवाह दुःखमका लकलियुग में प्रवर्त्तते नहीं हैं । चारों पापविवा होका वेदोक्त विधि जी नही है. धर्म होनेसें. ॥ संप्रति वर्त्तमान प्राजापत्य विवाहका विधि कह ते है ॥ मूल, अनुराधा, रोहिणी, मघा, मृगशिर, हस्त, रेवती, उत्तरा ३, स्वाति, इन नक्षत्रोंमें लग्न करना । वेध, एकार्गल, लत्ता, पात, उपग्रह संयुक्त नक्षत्रों में विवाद नही करना । तथा युति, क्रांति, साम्य, दोष में जी नहीं करना । तीन दिनको स्पर्श नेवाली तिथि में, ( यवम् दय तिथिमें ) क्रूर तिथि में, दग्ध तिथि में, ) रिक्ता तिथिमें, श्रमावास्या, अष्टमी, षष्टी, द्वादशी इनमें विवाह नही करना । नद्रा में, गंगांत में, डुष्टनक्षत्र तिथि वार योगों, व्यतिपात में, वैधृतिमें और निंद्यसमय में विवाद नही करना सूर्यके क्षेत्रमे बृहस्पति होवे और बृहस्पतिके क्षेत्रमें सूर्य होवे तो, दीक्षा, प्रति ष्टा, विवाह प्रमुख वर्जने । चौमासेमें, अधिकमा
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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