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________________ अष्टमपरिच्छेद. ६८५ चंद्रबलके हुए, तुच्छ महोत्सवके जी हुए, विवाह करना उचित है. यतउक्तम् ॥ वर्षमास दिनादिनां शुद्धिं राकाकरग्रहे ॥ नालोकयेच्चंद्रबलं वरं प्राप्य विधापयेत् ॥ १ ॥ पुरुषका आठ वर्षसें लेके ८० वर्षके बीच श् विवाह होना चाहिये. क्योंकि, अस्सी वर्ष उपरांत प्रायः पुरुष शुक्ररहित होता है. । विवाह दो प्रकारके होते हैं, आर्यविवाह १, पापविवाह 2. । चार्य विवाह के चार भेद हैं. ब्राय विवाह १, प्राजापत्य विवाह २, यार्षविवाह ३, और देवत विवाह ४. ये चारों विवाह मातापिताकी ज्ञासें होनेसें लौकिक व्यवहारमें धार्मिक विवा ह गिने जाते हैं. पापविवाह के जी चार भेद हैंगांधर्व विवाह १, सुरविवाह २, राक्षस विवाह ३, और पैशाच विवाह ४. ये चारों स्वेच्छानु सार कर सें पापविवाद गिने जाते हैं. । प्रथम ब्राह्वया विवाह विधि लिखते हैं | शुभ दिन में, शुभ लग्न में, पूर्वोक्त गुणसंयुक्त वरको बुलवाके स्नान अलंकार करके संयुक्त हुए तिस वरकों अलंकृत कन्या देवे ॥ मंत्रो यथा ॥ “ ॐ सर्वगुणाय सर्वविद्याय सर्वसुखाय सर्वपूजिताय सर्वशोजनाय तुभ्यं वस्त्रगंधमाल्यालं
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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