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________________ ६७६ जैनधर्मसिंधु रासंग इच्छते हैं.। ऐसा व्याख्यान करके गुरु शिष्य को चैत्यवंदन करावे. । परमेष्ठिमंत्रका उच्चार और मंत्रव्याख्यान पूर्ववत्. । इतना विशेष है. शूमादि कोंको 'नमो' के स्थानमें ‘णमो' उच्चारण कराना. इतिगुरुसंप्रदायः। पीछे शिष्यसहित गुरु, उत्सव करते हुए धर्मागारमें जावे. तहां मंगलीपूजा, गुरु नमस्कार, वासदेपादि पूर्ववत् । पीछे मुनियोंको अन्न, वस्त्र, पात्र दान देवे. और चतुर्विध संघकी पूजा करे. ॥ इति उपनयने शूमादीनां उत्तरीयक न्यासोत्तरासंगानुशोविधिः॥ __ अथ बटूकरणविधिः-अथ बटूकरणविधि लिखते हैं. ॥ जिसवास्ते सम्यक् उपनीत, वेदविद्यासंयुक्त, मुष्प्रतिग्रहवर्जित, अशुजाननोजन करनेवाले, माह नोंके आचारमें रक्त, सर्व गृहस्थोकेसंस्कारप्रतिष्ठादिक ौके करानेवाले, ऐसें ब्राह्मण, पूज्य होते हैं । परंद त्रियादि राजायोंको, सेवा, अन्नपाक, तिसकी आज्ञा करनी, थन्युत्थान, चाटुः-मनोदर वचन, प्रशंसा, विना नमस्कारके आशीर्वाद देना, विज्ञानकर्म, कृषि वाणिज्यकरण, तुरंगवृषनादि शिदाकरण, इत्यादि कर्म करनेवाले ब्राह्मणयोग्य नहीहे. इसवास्ते एसे ब्राह्मणो वा हरको को शुरू ब्राह्मण बनानेके लिए "बटू करण” विधि करनाचहिये. सो बतातेंहे. उक्तं च यतः ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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