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________________ जैनधर्मसिंधु. ६६० जिनका उपवीत अर्थात् मुजासूत्र सो कहावे जिनोपवीत. । नवब्रह्मगुप्ति गर्जरत्नत्रय, येह पुरा, श्रीयुगादिदेवने गृहस्थीवर्णत्रयको अपनी मुसाका धारण करना यावत् जीवतांश कहा था. । तदपीछे तीर्थक व्यवच्छेद हुए, मिथ्यात्वको प्राप्त ब्राह्मणोंने हिंसा प्ररूपणेसें चारों वेदको मिथ्या पथमें प्राप्त करे हुए, पर्वत और वसुराजासे प्रायः हिंसक यज्ञके प्रवृत्त हुए, यज्ञोपवीत' ऐसा नाम धारण करा. मिथ्या दृष्टि यथेछासें प्रलाप करो ! परंतु जिनमतमें तो, जिनोपवीतही नाम है, नतु यज्ञोपवीत. तिसवास्ते तैनें इस जिनोपवीतको अहीतरें धारण करना मासमासपीछे नवीन धारण कराना, प्रमादसें जिनो, पवीत जाता रहे, वा टुट जावे तो, तीन उपवास करके नवीन धारण करना. प्रेतक्रियामें दक्षिण स्कंधके ऊपर, और वाम कदाके देखें, ऐसे विपरीत धारण करना. क्योंकि, सो विपरीत कर्म है. । मुनि जी, मृत मुनिके त्यागनेमें तथाविध विपरीतही वस्त्र पहेनते हैं, जिसवास्ते, तूं जन्मकरके शूज आजतक था सांप्रत संस्कार विशेषकरके ब्रह्मगुप्तिके धारणेसें ब्राह्मण, वा दतालाणेन-रक्षणकरनेसे क्षत्रिय, वा न्यायधर्म में प्रवेश करनेसे वैश्य हुआ है; तिसवास्ते, क्रियासहित इस जिनोपवीतको अहीतरें ग्रहण करना अहीतरें रखना. तेरेको सद्धर्मवासना उपन
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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