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________________ ६६६ जैनधर्मसिंधु. करावे. फिर पूर्वाभिमुख होके शक्रस्तव पढे । उस पीछे गृहस्थगुरु, आसन ऊपर बैठ जावे, और शिष्य ' नमोस्तु' कहता हुआ गुरुके पगोंमें पक्के ऐसें कहे, “ जगवम् नवनिर्मम व्रतादेशो दत्तः " तब गुरु कहे, " दत्तःसुगृहीतोस्तु सुरक्षितोस्तु स्वयं तर परं तारय संसारसागरात् " ऐसें कहके नमस्का र पढता हुवा ऊके दोनों (गुरु शिष्य ) चैत्यवंदन करें. उसपीछे ब्राह्मणने, विप्र क्षत्रिय वैश्यके घरमें निक्षाटन करना; त्रियने शस्त्र ग्रहण करना; और वैश्यने अन्नदान करना. ॥ इत्युपनयने व्रतादेशः ॥ Bar व्रतविसर्गः कथ्यतेः - श्रथ व्रतविसर्ग कहते हैं. ॥ ब्राह्मणने आठ वर्षसें लेके सोलां वर्षपर्यंत, दंग और जिन धारण करके, निक्षावृत्ति करके जोजन करना, यह उत्तम पक्ष है. क्षत्रियने दंग जिन धारण करके दश वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत आपहिं पाक करके, देवगुरुकी सेवामें तत्पर होके, जोजन करना; और वैश्यने दंग जिन धारण करके स्वकृत जोज न करके बारां वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत जोजन करना; यह उत्तम पक्ष है । यदि कार्यव्यग्रतासें तितने दिन न रह सके तो, ब (६) मास पर्यंत रहना. तदजावे एक मास पर्यंत, तदजावे पक्ष पर्यं त, तदभावे तीन दिन रहना. यदि तीन दिन जी न
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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