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________________ ६५४ जैनधर्मसिंधु कृत्यं ।” गुरु कहे अहंजिरा दिशामि । ” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “जगवन् नवब्रह्मगु प्तिगर्न रत्नत्रयममादिष्टं ।” गुरु कहे। “श्रादिष्टं । फेर नमस्कार करके शिष्य । “जगवन् नवब्रह्मगुप्ति गर्न रत्नत्रयं मम समादिश ।” गुरु कहे। “समा दिशामि ।” फेर नमस्कार करके शिष्य जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं मम समादिष्टं ।” गुरु कहे। “समादिष्टं ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। " जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं ममानुजानीहि”। गुरु कहे । “अनुजानामि ” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। “नगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं ममानुज्ञातं ।” गुरु कहे । “अनुज्ञातं " । फेर नम स्कार करके शिष्य कहे । “नगवन् नवब्रह्मगुप्ति गर्न रत्नत्रयं मया स्वयं करणीयं ।” गुरु कहे। " कर पीयं ।” फेर नामस्कार करके शिष्य कहे । “नगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्न रत्नत्रयं मया अन्यैः कार यितव्यं ।" गुरुकहे “कार यितव्यं” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। "जगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्ज रत्नत्रयं कुर्वतोऽन्ये मया अनु ज्ञातव्याः ” गुरु कहे । “अनुज्ञातव्याः” दत्रि यकों यह विशेष है 'जगवन् अहं क्षत्रियो जातः' आदेश समादेश दोनों कहने, अनुज्ञा न कहनी. करणकारणमें ‘कर्त्तव्यं' 'कारयितव्यं ' ऐसे कहना, 'अनुज्ञातव्यं' ऐसे न कहना. । और वैश्यको
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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