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________________ अष्टमपरिवेद. ६४ए तदनंतर लग्नवेलाके हुए गुरु, पूर्वोक्त जिनोपवी तको अपने हाथमें लेवे पीछे उपनेय फेर खमा होकर हाथ जोमके ऐसें कहे ॥ — “॥ नगवन् वएणों धितोऽस्मि । ज्ञानोधितोस्मि । क्रियोसितो । तङिनोपवीतदानेन मां वर्णज्ञान क्रि यासु समारोपय ॥" ___ ऐसें कहके 'नमोस्तु २, कहता हुआ गुरुके पगों में पडे गुरु फिर पूर्वोक्त उबापनमंत्रकरके तिसको उगके खमा करे । तदपीडे गुरु दक्षिण हायमें जिनोपवीत रखके ॥ _ “॥ अह नवब्रह्मगुप्तीः स्वकरणकारणानुमती कारयेः तददायमस्तु ते व्रतं स्वपरतरणतारणसमर्थो जव अहँ ॐ ॥” इत्रियको ___"॥ करणकारणाच्यां धारयेः स्वस्य तरणसमर्थों नव ॥” वैश्यको ___“॥ करणेन धारयेः स्वस्य तरणसमर्थों जव ॥" शेषं पूर्ववत् ॥ इस वेदमंत्रकरके पंच परमेष्ठिमंत्र पढता हुआ उपनेयके कंवमें जिनोपवीत स्थापन करे । पीछे उपनेय तीन प्रदक्षिणा करके 'नमोस्तु २' कहता हुथा, गुरुको नमस्कार करे. गुरु जी “निस्तारगपा रगो नव” ऐसा आशीर्वाद कहे । तदपी गुरु पूर्वाभिमुख होके, जिनप्रतिमाके आगे शिष्यको
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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