SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 676
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ जैनधर्मसिंधु. इसी रीतिसें दो तंतु और योजन करिये, तबतीनो तंतु मिलाके एक अग्र होवे है. । तहां ब्राह्मणको तीन अग्र, क्षत्रियोको दो और वैश्योंको एक.। परम तमें तो ऐसा कथन है ॥ ॥कृते स्वर्णमयं सूत्रं त्रेतायां रौप्यमेव च ॥ छापरे ताम्रसूत्रं च कलौ कर्पासमिष्यति ॥१॥ कृतयुगमें स्वर्णमयसूत्र, त्रेतायुगमें रूपेका, छाप रयुगमें तांबेका और कलियुगमें कर्पासका यज्ञोपवीत करना ॥” परंतु जिनमतमें तो, सर्वदा ब्राह्मणोंको सौवर्णसूत्र, और क्षत्रियवैश्योंको सर्वदा कार्पाससूत्र हीहै. ॥ इतिजिनोपवीतयुक्तिः ॥ अथ उपयनविधि कहते हैं:-उपनीयते वर्णक मारोहयुक्तिकरके प्राणीको पुष्टिको प्राप्त करिये; इत्युपनयनं. । श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, मृगशिर, अ श्विनी, रेवती, स्वाति, चित्रा, पुनर्वसू । तथा च । मृगशिर, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, स्वाति, चित्रा, पुष्य, अश्विनी, श्न नक्षत्रोंमें मेखलाबंध, और . मोद करणा, आचार्यवर्य कहते हैं. । गर्भाधानसें वा जन्मसे आग्मे वर्षमें ब्राह्मणोंको मौंजीबंध उप नयनका प्रारंज कथन करते हैं, दत्रियोंको ग्या रह (११) वर्षमें, और वैश्योंको बारमे वर्षमें । वर्णा धिपके बलवान हुए उपनीतिक्रिया हितकारिणी होती है, अथवा सर्व वौँको गुरु चंद्र सूर्य बल
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy