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________________ अष्टमपरिजेद. ६३० है, सो सर्वत्र प्रथम कारण है. श्रावक तथा साधु योंको संजमलजाका हेतु है.॥ ___ तथा च श्रीधर्मदासगणिपादैरुपदेशमालायामप्यु क्तम् ॥ यथा धम्मं रकर वेसो संकश् वेसेण दिकिमि अहं - उम्मग्गेण पतं रकश राया जणवऊब ॥१॥ अर्थः-वेष धर्मकी रक्षा करता है. क्योंकि, वेष होनेसें कार्य करता हुश्रा मनमें शंका करता है कि, मैं दीक्षितवेषवाला हूं.मुझको देखके लोक निंदा करेगे, इसवास्ते उन्मार्गमें पमते हुएकी नी वेष रक्षा करता है, जैसे राजा देशकी रदा करता है.॥ तथा इक्ष्वाकुवंशी, नारदवंशी, वैश्य, प्राच्य, उदी च्य, श्न वंशोंके जैन ब्राह्मणको उपनयन और जि नोपवीत धारण करणा. । तथा क्षत्रीयवंशमें उत्पन्न हुए जिन, चक्रि, बलदेव, वासुदेवोंको, श्रेयांसकुमार दशार्णजादि राजायोंको, हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, विद्याधरवंश, इन वंशोंमें उत्पन्न हुएको नी, उपन यन जिनोपवीतधारण विधि है. । जिसवास्ते कहा है.। आगममें, "देवाणुप्पिया, न एवं नूअं, न एवं जवं, न एवं नविस्सं, जन्नं, अरहंता वा, बलदेवा वा, वासु देवा वा, अंतकुलेसु वा, तुबकुलेसु वा, दरिदकुलेसु वा, जिरकागकुलेसु वा, माहणकुलेसु वा, श्रायासु
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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