SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 669
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमपरिद. ६३५ ग्रह केंप्रमें ॥ । १० होने चाहिये । यदि केंजमें सूर्य होवे तो ज्वर होवे. मंगल होवे तो शस्त्रसे नाश होवे । षष्टी (६), अष्टमी (), चतुर्थी (४), सिनीवाली (चतुर्दशीयुक्तश्रमावास्या) चतुर्दशी (१४), नवमी (ए), इन तिथीयोंमें और रवि, शनि, मंगल, इन वारोमें दौरकर्म न करा वणा.। धन २, व्यय १२, त्रिकोण ५। ए, श्न गृहोमें असगृह होवे तो, मृत्यु हुए नी दुरक्रिया सुंदर नही होवे; और इनही घरोमें गुन ग्रह होवे तो कुरक्रिया पुष्टिकी करणहार जाणनी. । तिसवा स्ते बालकको सूर्यबलयुक्त मासके हुए, चंडताराब लयुक्त दिनमें, पूर्वोक्त तिथिवार नदत्रमें कुलाचारा नुसार कुलदेवताकी प्रतिमाके पास अन्य ग्राममें, वनमें, पर्वतके ऊपर, वा घरमें शास्त्रोक्त रीतिसें प्रथम पौष्टिक करे. । तदपीने षष्टीपूजावर्जित मात्र ष्टपूजा पूर्ववत् । तदपीजे कुलाचारानुसार नैवेद्य देवपक्वान्नादि करणा. । तदपीठे सुनात गृहस्थगुरु बालकको श्रासनऊपर बैगके बृहत्स्नात्रविधिकृत जिननात्रोदकसे शांतिदेवीके मंत्रकरके सिंचन करे. तदपीने कुलक्रमागत नापित ( नाइ) के हाथसें मुंमन करावे. । तीन वर्णके शिरके मध्यनागमें शिखा स्थापन करे और शुषको सर्वमुंमनः। चूडा करण करते हुए यह वेदमंत्र पढे. ॥ यथा ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy