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________________ ६२४ जैनधर्मसिंधु. मंत्रपवित्रित जलकरके अनिषेक करता हुथा, वेद मंत्रकरके आशीर्वाद देवे. ॥ यथा ॥ ___“॥ अहं जीवोऽसि । अनादिरसि । अनादि कर्मनागसि । यत्वया पूर्व प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैरा श्रववृत्त्या कर्मबळं तबन्धोदयोदीरणासत्तानिः प्रति नुव।माशुजकर्मोदयफलजुक्तेरुळेकं दध्याः । नचा शुजकर्मफलजुक्त्या विषादमाचरेः । तवास्तु संवर वृत्त्या कर्मनिर्जरा अहं 3 ॥" सूतकमें दक्षिणा नही है. ॥ चंदन, दधि, दर्वा, अक्षत, कुंकुम, लेखिनी, हिंगुलादिवर्ण, पूजाके उप करण, नैवेद्य, सधवा स्त्रीयां, दर्न, नूमिलेपन, श्त नी वस्तु षष्टीजागरणसंस्कारमें चाहिये. ॥ इति षष्टी संस्कारविधिः समाप्तः॥ ॥ अथ शुचिकर्मसंस्कार ॥ यहां शुचिकर्म स्वस्ववर्णानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए करणा, तद्यथा ॥ शुष्येछिनो दशाहेन छादशाहेन बाहुजः ॥ वैश्यस्तु षोमशादेन शूलो मासेन शुद्ध्यति ॥१॥ कारूणां सूतकं नास्ति तेषां शुछिर्न चापिहि ॥ ततो गुरुकुलाचारस्तेषु प्रामाण्यमिछति ॥२॥ तिस कारणसें स्वस्ववर्णकुलानुसार करके दिनोंके व्यतीत हुए, गुरु सर्वही, सोला पुरुषयुगसें उरे,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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