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________________ अष्टमपरिवेद. ६०० करनेवाले इन चारों वेदोंको, माहनोंको पठ न कराता हुआ. । तदपीजे वह माहन, सात तीर्थं करोंके तीर्थतक अर्थात् चंद्रप्रजतीर्थंकरके तीर्थतक सम्यक्त्वधारी रहें, और आईतश्रावकोंको व्यवहार दिखाते रहें, तथा धर्मोपदेशादि करते रहें । तदपी जे नवमे तीर्थंकर श्रीसुविधिनाथपुष्पदंतके तीर्थके व्यवच्छेद हुए, तिस बीचमें तिन माहनोंने परिग्र हके लोजी होके, स्वच्छंदसें तिन शार्यवेदों कि ज गे कुबकसुनी सुनार बातों लेके नवीन श्रुतियां र ची, तिनमें हिंसक यज्ञादि और अनेक देवतायोंकी स्तुति (प्रार्थना) रची (क्रमसें झग, यजुः साम, अथ र्व,) नाम कल्पना करके, मिथ्यादृष्टिपणेको प्राप्तकरे तब व्यवहारपाठसे पराङ्मुख अर्थात् परमार्थरहि त मनःकल्पित हिंसक यज्ञप्रतिपादकशास्त्रोंसे परा ङ्मुख, ऐसे श्रीशीतलनाथा दिके साधुयोंने तिन हिं सक वेदोंको बोरके, जिनप्रणीत आगमकोही प्रमा णचूत माने । तिन ब्राह्मणोमेंसें जी, जिन माहनोंने (ब्राह्मणोंने ) सम्यक न त्यागन करा, अर्थात् जे माहन पुनः तीर्थंकरोके उपदेशसे सम्यक्त्व पाके दृढ रहे,तिनोके संप्रदायमें आजनी नरत प्रणीत वेदका लेश कातरव्यवहार गत सुनते हैं; सोही यहां कहते हैं.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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