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________________ ६०६ जैनधर्मसिंधु. विषधरपुष्टज्वरव्यंतरज्वरराक्षसरिपुमारि चौरेतिश्वा पदोपसर्गादिनयेच्यो रक्ष। शिवं कुरु । शांति कुरु शतुष्टिं कुरु ।। पुष्टिं कुरु । खस्तिं कुरु । न गवतिश्रीशांतितुष्टिपुष्टिस्वस्ति करु ।। ॐ नमो नमो कुंक्षः यः कः ही फट ५ स्वाहा”॥ इति ॥ इस स्तोत्र करके अथवा पूर्वोक्त मंत्र करके सहस्त्र मूल चूर्ण सर्व जलाशयोंके जलको सातवार मंत्रके, पुत्रवाली सधवा स्त्रीयोंके हाथेकरी मंगलगीतोंके गातेहए गर्नवंतीको स्नानकरावे, सुगंधका अनुलेपन करी सदश वस्त्र (विवाह समय पहिरनेका वस्त्र) प हिराके, संपत्तिअनुसार श्राजरण धारण करवाके, पतिके साथ वस्त्रांचलका ग्रंथिबंधन करके, पतिके वामेपासे शुन्न श्रासनके ऊपर स्वस्तिक मंगलकरके, गर्जवंतीको बिठलावे ग्रंथियोजनमंत्रो यथा ॥ ॐ अहँ । स्वस्ति संसारसंबंधबझ्योः पतिनार्ययोः॥ युवयोरवियोगोस्तु नववासांतमाशिषा ॥१॥ विवाहको वर्जके, सर्वत्र सीमंत्रकरके दंपतीका ( स्त्रीज का ) ग्रंथिबंधन करना.। तदपी गुरु, तिस गर्नवंतीके आगे शुन पट्टे ऊपर पद्मासन लगाके बैठके, मणिस्वर्णरूप्यताम्रपत्रके पात्रोंमें जिनस्नात्रके जलसंयुक्त तीर्थोदकको स्थापन करके, आर्यवेदमंत्र पढके, कुशाग्र बिंऽयोंकरके, गर्जवं तीको सींचन करे.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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