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________________ सप्तमपरिजेद. ५६५ आप्यो नहीं, सूतां संथारिया उत्तरपट्टा टलतो अधिको उपगरण वावों, देशतः स्नान मुखें नीनो हाथ लगामयो, सर्वतः स्नानतणी वांबा कीधी, शरी रतणो मल फेमयो, केश रोम नख समास्या, अने रीजे कां गाडाविजूषा कीधी, अकल्पनीय पिंमादि विष अनेरो जे कोण ॥ ७॥ श्रावस्सयसघाए, पमिलेहणवाण निरक अन्न त॥ आगमणे नीगमणे । गणे निसिपणे तु अद्दे ॥ १ ॥ आवश्यक उन्नयकाल व्यादिप्त चित्तपणे पमिक्कमणुं कीg, पमिकमणा मांहि जंघ आवी, बेग पमिकमणुं को,, दिवस प्रतें चार वार सद्याय, सात वार चैत्यवंदन न कीधां, पमिलेहणा आधी पाबीनणावी, अस्तो व्यस्त कीधी, आर्त रोज ध्यान ध्यायां, धर्मध्यान शुक्नध्यान ध्यायां नहीं, गोचरी गयां बेंतालीश दोष उपजता चिंतव्या नहि, बती शक्तिए पर्व तिथे उपवासादिक कीधो नहि, उपा सरा देहरामांहि पेसतां निसिही निसरतां श्रावस्स ही कहेवी विसारी, श्वामिछादिक दशविध चक्रवाल समाचारी सांचवी नहि, गुरुतणो वचन तहत्ति करी पडिवयों नहि,अपराध आव्यां मिठामि कुकर दी धा नहि, स्थानके रहेतां हरियकाय बियकाय कीमी नगरां सोध्यां नहीं, उघो मुहपत्ति चोलपट्टो संघव्या, स्त्री तीर्यचतणा संघट्ट अनंतर परंपर हवा,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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