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________________ सप्तमपरिछेद. ५६३ षासमिति, एषणासमिति, श्रादाननंडमत्त निदेपणा समिति, पारिष्टापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगु प्ति, कायगुप्ति ए अष्ट प्रवचनमाता रूडी परे पाली नही, साधुतणे धर्मे सदैव, श्रावकतणे धर्मेसामायिक पोसह लीधे, जे कांश खंमन विराधना कीधी होय, चारित्राचार विष अनेरो जेको अतिचार ॥४॥ ॥ विशेषतश्चारित्राचारे तपोधनतणे धर्मे ॥ वयब कं कायबकं, अकप्पो गिहि जायणं ॥ पलिअंक नि सिजाए, सिणाणं सोनवजणं ॥५॥ ॥ व्रत षट्के, पहिले महावतें प्राणातिपात, सूदम बादर, त्रस थावर जीवतणी विराधना दूई, बीजे महावतें क्रोध लोन हास्य जय लगें जूतुं बोल्या, तीजे अदत्तादानविरमण महाव्रते ॥सामिजीवादत्तं, तिबयरत्तं तदेवय गुरुहि ॥ एवमदत्तंचजहा । परम तंवीयराएहिं ॥ १ ॥ स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त, गुरु अदत्त, ए चतुर्विध अदत्तादान मांदि जेकांश अदत्त परिजोगव्युं ॥ चोथे महाव्रते ॥ वसहीकह निसिडिंदिय, कुमित्तरपुवकी लिए पणिए॥ अश्मायाहार विनूसणारं, नवबंजचेरगुत्तिर्च ॥ १ ॥ ए नववाडी सूधी पाली नही, सुहणे स्वप्नांतरें दृष्टि विपर्यास हू ॥ पंचमे महावते, धर्मोपगरणने विषे श्वा मूळ गृहि आसक्ति धरी, अधिका उपगरण वावस्वार्या, पर्व तिथि पमिलेहवो विसास्यो ॥ बजे
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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