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________________ षष्ठमपरिछेद. ५५१ ॥२॥ उगसो जो पर मनहगें, पर उपजावें रीऊ॥ जासकरें वस जगतकौं॥ साचा ठग सोज ॥राए॥ मरें कहा जस राज कहें,जो अपने मन साच॥क्षिण में परगट होयगा, ज्यौं प्रगटायो काच ॥ २०॥ ढहै कोट श्रग्यांनका,गोलाग्यांन लगाय।मोदरायकौं मार लैं, जसा खगें सब पाय ॥ १ ॥ नदी नखीनारी तणो।नागन कुल जसराज॥नरस्त्री नरपति निर्गुणिन, श्राठे करें अकाज ॥ ३२ ॥ तारे ज्यौं नरकौं जसा नर सायरमें पोत ॥ त्यौं गुरु तारें जव जलधि॥ करें ग्यांन उद्योत ॥ ३३॥ थोन लोजनहि जीउकौं, जो लाख कोटिधन होतासमता जो श्रावें जसा,सुखी सदा मन पोत ॥ ३४ ॥ दक्षिण उत्तर च्यार दिस, जसालमें धन काज॥प्रापति विना नपाईयें, कोमि करो सुउपाय ॥ ३५ ॥ धन पाया खाया नही, दीयानि कबु नाहि,सो वागुरी होयें धनमें जसा,ढुंढतदै धन मांहि ॥ ३६ ॥ निर्गुन पतित नारी निलज, कूपक खारो नी॥नीच मीत जसराज कहें, पांचों दहें शरीर ॥३॥ पर उपगारी जगतमें ॥ अलप पुरुष जसराज, सीतल वचन दया मया, जाके मुख परलाज ॥३॥ फोज दिसो दिस मिल गई, जसा घुरे निसाणामुळं सन मुख जायनें, सूरगणे नहि प्राण ॥ ३ए ॥ बुंब परें सब दोर है, लैलै आयुध हाथ ॥ बदन मलिन कर हैं जसा, जब जाचें कोय अनाथ ॥ ४० ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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