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________________ ५३८ जैनधर्मसिंधु. म कहीयें, मुंऊ मानसरें परम हंस रहीयें ॥ ८ ॥ कलश ॥ ए कृपा मूरति पास स्वामी, मुगतीगामी गाईयें ॥ यति नक्ति जावें विपति नावे, परम संपद पायें | प्रभु महिम सागर गुण विरागर, पास अंत रिक जे स्तवे ॥ तस सकल मंगल जय जयारव, आनंद वर्द्धन वीनवे ॥ ॥ अथ श्री शांति जिन विनतिरूप बंद ॥ ॥ शारद माय नमुं शिर नामि ॥ हुं गाउं त्रिभुव नको स्वामी || शांति शांति जपे जो कोइ, ता घर शांति सदा सुख होइ ॥ १ ॥ शांति जपी जे कीजें काम, सोइ काम होवे अभिराम ॥ शांति जपी पर देश सिधावे, ते कुशलें कमला लेइ घ्यावे ॥ २ ॥ गर्न थकी प्रभु मारि निवारी, शांतिजी नाम दियो हित कारी ॥ जे नर शांति तथा गुणगावे, रुधि अचिं ती ते नर पावे ॥ ३ ॥ जा नरकूं प्रभु शांति सहाई, ता नरकूं क्या यारति जाइ ॥ जो कतु वंबे सोई पूरे, दारिद्र दुख मिथ्यामति चूरे ॥ ४ ॥ अलख निरं जन ज्योत प्रकाशी, घट घट अंतरके प्रभु वासी ॥ स्वामी स्वरूप कयुं नवि जाय, कहेतां मोमन च रिज थाय ॥ ५ ॥ डार दीए सबही इथियारा, जीत्यां मोह तथा दल सारां ॥ नारि तजी शिवशुं रंग राचे, राज तज्युं पण साहेब साचे ॥ ६ ॥ महा बलवंत कहिजें देवा, कायर कुंथु न एक हणेवा ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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