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जैनधर्मसिंधु. कमे वाइअस्स वायाए ॥ मणसा माणसिअ स्स, सबस्स वयाश्वारस्स ॥ ३४ ॥ वंदणवय सिकागा, रवेसु सन्ना कसाय दंडेसु ॥ गुत्ती सुअ समिईसुअ, जो अश्ारो अ तं निंदे ॥३५॥ सम्मदिही जीवो, जइ विहु पावं समा यरे किंचि ॥अप्पोसि दो बंधो, जेण न निंद धसं कुण॥३६॥ तं पिढ्सपमिकमणं, सप्प रिआवं सउत्तरगुणं च॥ खिप्पं जवसामेश्वादि व सुसिरिस्क विजों॥३७॥ जदा विसं कुछ गयं, मंत मूल विसरया॥ विजा दणंति मंते हिं, तो तं हव निविसं ॥३०॥ एवं अहविदं कम्मं, राग दोस समझिअं॥आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं दण सुसाव ॥ ३० ॥ कय पावोवि मणुस्सो, आलोश्त्र निदिअ गुरुस गासे ॥ दोश् अरेग लहुर्ज, उदरिअ जरुव नारवदो ॥४०॥ वस्सएण एएण, सावर्ड जवि बहुर होइ ॥ उकाण मंत किरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥४१॥ आलोअणा बहुविदा, नयसंजरि पमिकमणकाले ॥ मूल गुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिदामि॥४॥