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________________ ४३६ जैनधर्मसिंधु यें मुक्तिविवेक रे ॥ सु० ॥ ध॥६॥ समकित बी ज ते सद्दहे रे लो, ते टाले नरक निगोद रे ॥सु॥ विजय लब्धि सदा लदे रे लो, नित नित विविध विनोद रे ॥ सुध ॥७॥ इति ॥ ॥ अथ तृतीयानी सद्याय प्रारंजः॥ ॥डर अांबा अांबली रे ॥ ए देशी ॥ त्रीज कहे मुजलखी रे, श्रादरो देवगुरु धर्म ॥ जनम जरा मृत्यु बुटस्यो रे, टालो जवजय कर्म ॥ नविकजन, धरजो धर्मशुं राग ॥ जिम पामो न वनिधि ताग ॥ न ॥ ध०॥ ए आंकणी ॥१॥ मोहिनी त्रणे परिहरो रे, राखो मन निःशल्य ॥ गा रव त्रणे मत करो रे, मो त्रएये शल्य ॥ न० ॥ धम् ॥२॥ मानव नवमां मोटकां रे, कहियां तीने रत्न ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र अ रे, तेहy करियें य त्न ॥ न० ॥ ध० ॥३॥ ए त्रएये रत्नयोगथी रे, पा मियें त्रीनुवन राज ॥ श्रीजगवंत शकारशे रे, सर शे वंडित काज ॥ न० ॥ धम् ॥४॥ त्रिवर्गनां सुख मेलवो रे, आणी त्रएये योग ॥ मन वचन काया योगथी रे, टालो कर्मना रोग ॥ न० ॥ ध० ॥ ५॥ त्रण गुप्ति सूधी धरे रे, जे नर त्रीज श्राराधि ॥ वि जयलब्धि ते पामशे रे, दिन दिन सुख समाधि ॥ ॥अथ चतुर्थीनी सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ कपूर हवे अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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