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________________ ४२२ जैनधर्मसिंधु विवेकें करे, अर्थ विचार न हैडे धरे ॥ मन उद्वे ग वंबे यश घणो, न करे विनय वडेरातणो ॥ २ ॥ जय आणे चिंते व्यापार, फल संशयनी आएं सार ॥ दवे वचनना दोष विचार, कुवचन बोले करे हुंकार ॥ ३ ॥ ले कुंची जा घर उघाम, मुख लवरी करतो वढवाड ॥ श्रावो जावो बोले गाल, मोह करी दुलरावे बाल ॥ ४ ॥ करे विकथाने हास्य अ पार, ए दश दोष वचनना वार ॥ काया केरां दूषण बार, चपलासन जोवे दिश चार ॥ ५ ॥ सावध काम करे संवात, घालस मोडे उंचे हाथ ॥ पग लंबे बेसे अवनीत, उटिंगन ल्ये यांनो जींत ॥ ६ ॥ मेल उतारे खरज खणाय, पग उपर चढावे पाय ॥ ति उघाडुं मेले अंग, ढांके तेम वली अंग उपंग ॥ ७ ॥ निद्रायें रस फल निर्गमें, करहा कंटक तरु ए जमे ॥ ए बीशे दोष निवार, सामायिक कर जो नर नार ॥ ८ ॥ समता ध्यान घटा उजली, केशरी चोर हुवो केवली ॥ श्रीशुजवीर वचन पा लती, स्वर्गे गइ सुलसा रेवती ॥ ए ॥ इति ॥ ॥ श्रथ अश्मंताजीनी सद्याय ॥ ॥ श्री अश्मंता मुनिवरजूकी, करणी की बलि हारी वे ॥ खट वर्षनके संजम लीनो, वीरवचन चित धारी वे ॥ श्री० ॥ १ ॥ विजय नृपत्ति श्री देवी नंदन, पोलासपुर अवतारी वे ॥ अंग अग्यार
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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