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________________ जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ वैराग्य सद्याय ॥ को काज न आवे रे दुनियांके लोको, कोठ काज न आवे || जूठी बातका यानि नरोंसा, पीछे सें पस्तावे रे ॥ ० ॥ १ ॥ मतलबकी सब म बि लोकाइ, बढोतहिं रंग बानावे रे || 50 ॥ २ ॥ अपना अर्थ न देखे सो तो, पलकमे पीठ देखावे रे ॥ ० ॥ ३ ॥ बाजीगरकी बाजी जेसा, अजब दिमाक देखावे रे || || ४ || देखो दुनियां सकल खीली है, युंहीं मन ललचावे रे || कु० ॥ ५ ॥ जि ने जान्या तिने आप पिछान्या, बे खबरी दुःख पा वे रे ॥ ० ॥ ६ ॥ हंस सयाने एक सांइंशुं वर, काहेकुं चित्त न लावे रे | 5० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ श्रथ चैतन्य शिक्षाजास प्रारंभ ॥ ४१६ ॥ याप विचारजो श्रातमा, जांतें शुं जूले; थिर पदारथ उपरें, फोगट शुं फूले ॥ श्र० ॥ १ ॥ घटमांहे बे घरधणी, मेलो मननो जामो ॥ बोले ते बीजो नथी, जोने धरी तामो ॥ ० ॥ २ ॥ पा मीश तुं पासेंथकी, बाहेर शुं खोले || बेसे कां तुं बूमवा, मायानी लें || आ० ॥ ३ ॥ प्रीवा वि केम पामीये, सु मूरख प्राणी || पीवाये किम पश लीयें, जांऊवानां पाणी ॥ ० ॥ ४ ॥ आप स्वरुप नलखे, मायामांहे फूले ॥ गरथ पोतानी गांवनो, व्याजमा जिम डूले ॥ ० ॥ ५ ॥ जोतां नाम न
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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