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________________ पंचमपरिछेद. ४७ जलो रे, हियडे आणि मुज वाण ॥ ध०॥११॥ इति परस्त्री वर्जन स्वाध्याय ॥ ॥ अथ जीवने समता विषे शिखामण ॥ ॥हो प्रीतमजी प्रीतकी रीत अनीत तजी चित्त धारीयें, हो वालमजी वचन तणो अति उंमो मरम विचारीयें ॥ ए आंकणी ॥ हारे तुमें कुमतिके घेर जावो बो, तुमें कुलमां खोट लगावोडो, धिक ऐवज गतनी खावो बहोगा॥अमृत त्यागी विष पीउडो, कुमतिनो मारग लियोडो, ए तो काज अयुक्त की योगे ॥ हो ॥२॥ ए तो मोह रायकी चेटी बे, शीव संपत्ति एथी बेटी बे, एतो साकर गलती पे टीने ॥ हो ॥३॥ एक शंका मेरे मन श्रावी बे, किण विध ए चित्त नावी , एतो दाहण जगमा चावी ॥ हो ॥४॥ सह कृषि तमारी खाए बे, करी कामण चित्त नरमाए बे, तुम पुण्ययोगे ए पाए ॥ हो० ॥५॥ मत आंबल काज बाजल बोवो, अनुपम नव विरथा नवि खोवो, अब खोल नयण प्रगटी जोवो ॥ हो ॥६॥ण विध समता बहु समजाए, गुण अवगुण कंश सहु दरशाए, सुणी चिदानंद निज घर थाये ॥ हो ॥७॥ इति ॥ ॥अथ दान, शील, तप, नाव स्वाध्याय ॥ ॥श्री महावीरे नांखीया, दानना चार प्रकार रे ॥ दान शियल तप नावना, सखी पंचम गति दा
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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