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________________ पंचमपरिवेद. आग उठे जे घरथकी, ते पहेलु घर बाले ॥ जल नो जोग जो नवि मले, ते पासेंर्नु परजाले ॥ क० ॥ ॥४॥ क्रोधतणी गति एहवी, कहे केवलनाणी ॥ ॥ हाण करे जे इतनी, जालवजो एम जाणी ॥ ॥ क० ॥५॥ उदयरतन कहे क्रोधने, काढजो गले साही ॥ काया करजो निर्मली, उपशम रस नाही ॥ क० ॥ ६ इति क्रोधनी सद्याय ॥ ॥अथ माननी सद्याय ॥ ॥रे जीव मान न कीजीयें, माने विनय न श्रा वे रे ॥ विनय विना विद्या नहीं, तो किम समकित पावे रे ॥ रे ॥ १॥ समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मुक्ति रे ॥ मुक्तिनां सुख डे शा श्वतां, ते केम लहिये जुक्ति रे ॥ रे ॥२॥ विन य वमो संसारमां, गुणमां अधिकारी रे ॥ माने गुण जाये गली, प्राणी, जो जो विचारी रे ॥ रे ॥३॥ मान कमु जो रावणे, तेतो रामे मास्यो रे ॥ पुर्यो धन गरवे करी, ते अंते सवि हास्यो रे ॥ रे॥४॥ शूकां लाकमां सारिखो, फुःखदायी एखोटो रे॥उद यरत्न कहे मानने, देजो तमे देशवटो रे॥५॥इति ॥अथ मायानी सद्याय ॥ ॥ सम कितनुं मुल जाणीयें जी, सत्य वचन सा दात ॥ साचामां समकित वसे जी, मायामां मि थ्यात्व रे ॥ प्राणी म करीश माया लगार ॥१॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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