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________________ पंचमपरिजेद. ३७५ ग उमाडण डारें रे जा॥ सां ॥३॥ श्म जाणी जावा नवि दीजें, नर नारी नरजवने रे ना ॥1 लखी शुद्ध धर्मने साधो, जे मान्यो मुनि मनने रे जा ॥ सांग ॥४॥ जे विनाव परजावमा नजीयें, रमण स्वनावमां करीये रे ना॥ उत्तम पदपद्मने अवलंबी, नवियण नवजल तरी रे ना ॥ सांग ॥ ॥५॥ इति श्रीयातम हित सद्याय ॥ ॥अथ रात्रिनोजननी सद्याय प्रारंन ॥ ॥ पुण्य संजोगें नरजव लाधो, साधो आतम काज ॥ विषया रस जाणो विष सरिखो, श्म नांखे जिनराज रे प्राणी ॥ रात्रिनोजन वारो ॥१॥ श्रा गम वाणी साची जाणी, समकित गुण सही नाणी रे प्राणी ॥रात्रि० ॥ ए आंकणी ॥ अजदय बावी शमां रयणीनोजन, दोष कह्या परधान ॥ तेणें का रण रातें मत जमजो, जो हुवे हश्डे शान रे ॥ ॥प्रा० ॥२॥ दान स्नान आयुधने नोजन, एटला रातें न कीजें ॥ ए करवां सूरजनी साखें, नितिवच न समजीजें रे ॥प्रा॥३॥ उत्तम पशु पंखी पण रातें, टाले नोजन टाणो ॥ तुमे तो मानवी नाम धरावो, केम संतोष न श्राणो रे ॥ प्रा० ॥४॥ माखी जू कीमी कोली श्रावमो, नोजनमां जो श्रावे ॥ कोढ जलोदर वमन विकलता, एवा रोग उपावे रे ॥प्रा० ॥५॥ बन्नु जव जीवहत्या करतां, पातक जेद उपा
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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