SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७५ जैनधर्मसिंधु अवर सबे अनेरा ॥ श्रा॥२॥ वपु विनाशी तुं अविनाशी, अब हे श्नकुं विलासी ॥ वपु संग जब दूर निकासी, तब तुम शिवका वासी ॥ आ॥३॥ रागने रीसा दोय खवीसा, ए तुम पुःखका दीसा ॥ ॥ जब तुम उनकुं दूर करीसा, तब तुम जगका ई सा ॥ आप ॥४॥ परकी थासा सदा निरासा, ए हे जग जन पासा ॥ ते काटनकुं करो श्रन्यासा, ल हो सदा सुखवासा ॥ श्रा० ॥५॥ कबहींक काजी कबहींक पाजी, कबहींक हुथा अपत्राजी॥ कबहींक जगमें कीर्ति गाजी, सब पुजलकी बाजी ॥ अ॥ ॥६॥ शुक उपयोग ने समता धारी, ध्यान ज्ञान मनोहारी॥ कर्म कलंककुंदर निवारी, जीव वरे शिव नारी ॥ आ ॥॥ इति श्रापस्वजाव सद्याय ॥ ॥ अथ श्री सहजानंदीनी सजाय ॥ बीजी अशरण जावना ॥ ए देशी ॥ . ॥ सहजानंदी रे आतमा, सूतो कांश निश्चिंत रे ॥ मोह तणा रणीया नमे, जाग जाग मतिवंत रे, लूटे जगतना जंत रे, नाखी वांक अत्यंत रे, नरका वास ठवंत रे, को विरला जगरंत रे ॥ स ॥१॥ राग हेष परिणति नजी, माया कपट कराय रे ॥ काश कुसुम परें जीवमो, फोगट जनम गमाय रे, माथे नय जम राय रे, श्योमन गर्व धराय रे, सहु एक मारग जाय रे, कोण जग अमर कहाय रे ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy