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________________ चतुर्थपरिछेद. ३६५ ॥४॥रा ॥ प्रजुके चरणारबिंद पुजत हरषचंद ॥ काटिये करम फुःखमेटिये मरनको ॥५॥॥इति पद. गुण अनंत अपार प्रजुतेरे ॥ गु ॥ टेक॥सहस र सना करत सुरगुरु ॥ तोउ न पायोपार ॥१॥प्र॥ कोन अंबर गिने तारा ॥ मेरु गिरको जार ॥ चरम सागर लहर माला ॥ करत कोन विचार ॥२॥प्र॥ नक्ति गुण लवलेस नाखें ॥ सुविधिजिन सुखकार ॥ समय सुंदर कहत हमको।स्वामी तुम श्राधार ॥प्र॥ राग कल्याण. माश् मेरो मन तेरो नंद हरें ॥ एटेक ॥ कंचन वरण कमल दल लोचन ॥ निरखत नयन हरे॥१॥ पंचवरण मनहरण धरनपर, उम उम पांव धरे ॥रतन जमित कंचन घुघरियां ॥रुण ऊणकार करे ॥२॥ मा ॥ हलत लसत मुगता फल माला॥पीत वसन उपरे ॥ मानु चलिहे मान शिखरते ॥ गंगप्रवाह खिरे ॥३॥ मा ॥धन त्रिसलादे जाग्य तिहारो॥ तुंतिहुं जवन शिरे ॥ तीन जवनको नायक तेरे ॥ श्रांगनमे विचरे ॥४॥ मा ॥ श्रीवर्धमान जिनकी मूरत ॥ बिनु देखे न सरे ॥ हरखचंद प्रजु वदन विलोकत ॥ सबहि काजसरे ॥ ५ ॥ इति ॥ तुमरी. इंसानी सब हमक हमक जन्म महोत्सव आवे ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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