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________________ ३५१ चतुर्थपरिछेद. अक्षयज्ञान सेवक श्म जपे, जयजय श्री महावीर ॥७॥ मुं॥ इति ॥ रागणी पीतु तोबिना और न जाचुं जिनंद राय ॥ए टेक ॥ और देव शिव देवे ए मत, सांजली किम करी राचुं॥ एमत जे धारे ते जन, समकित किम रहे साचुं ॥ जि॥॥ जबहिं तबहिं तुम देवोगे, एह वचन नही काचुं ॥ समकित रत्न देखाव्वो तेथी, मानुं बुं सहु साचुं ॥जि ॥२॥ आगे अनेक उझारे सुनकर, चर नकमलपर माचुं ॥ अक्षय ज्ञान दायक देखिने, हर षित थ थ नाचुं ॥ जि ॥३॥ इति रागण कीफोटी साधु डे जिनंद नाम अवरने न राचुं ॥ मुकुट कुंडल चलक ऊलक, नाल तिलक जाचुं ॥ रत्न ज मित कुंमलेथी॥ तरणी तेज काचुं ॥१॥ मोतिहार जग जगाट, देखतांज माचुं ॥ बाजुबंध ज्ञानचंड, गीत गा नाचुं ॥ साचुं ॥२॥ इति रागणी पीवुधन युवती पर मन ललचाएं. एथी अधिक बी जुं कांश नजाणुं ॥ एटेक ॥ दान शियलमा चित्त नव लागे, जप तप सुणतां मन गनराणुं ॥ धन ॥ ॥१॥ सप्त व्यसन सेवनमां रसियो, करवा कपट कालजें कोतराणुं ॥ धन ॥२॥र्षा वेष मत्सर पर
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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