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________________ चतुर्थपरिच्छेद. ३४१ त जक्ती पान चतुर नर प्रेम थकी करिये ॥ ज‍ जिन मंदिरमां श्रांगी नव नव रचिये, पल पल वारे जिन नाम हृदयमां धरीये, तो मोक्षालयनु द्वार सत्वरे वरीये ॥ रस ० ॥ १ ॥ रुम जुम बुम बू म पग यकीनृत्यने करीये, त्यां चैत्यालयमां गीत ज्ञान प्रदरीये, तो जव सागरनो पार शीघ्रथी त रीये ॥ रस छा० ॥ रही अहमदनगरे बाल मित्र गुण गाइयें, प्रभु जक्ती करतां अनन्त सुखने पाइये, तो सुविधि जिनेश्वर जजतां सुखीया थईये रस० ॥ ३ शीतल नाथ स्तवन । शीतलनाथनी शीतलता जारी, दरशन करतां जाय कषायहा ॥ कमल सम नेत्र तेज जारी । शीतलना नी ॥ १ ॥ शशिसम वदन शीतल कारी, कटी केश री लंकारी, रुपे इन्द्र चन्द्र जाये वारी । शीतल नाथनी ॥२॥ कांतिकेवि दिशे कामगारी ॥ मुरती प्रभुजीनी मनोहारी ॥ जगतवत्सल प्रभु जयकारी ॥ शीतलनाथनी ॥ ३ ॥ जवी जीवने शीतलकारी, अ रजी मनसुखनी स्वीकारी ॥ बाल मित्रने जो तारी ॥ शीतलनाथनी ॥ ४ ॥ श्रेयांस जिनस्तवन । मावुं लगाडो तो मारा सम बे सलुंनी रे - ए राग । श्रेयांस प्रभुजी तुमें सहाय करोमारीरे, आपणों किं कर जाणी उतारो जवपारीरे, श्रे० ॥ १ ॥ विष्णु पि
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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