SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयपरिछेद. २६३ त लाजके लिए अधिक लोज न करना क्यों की श्र धिक लाजके लोजसे कोई समय मूल धनकाजी नाश हो जाता हे. विशेष लान होता होय तथा पि उकार कोश्को न देना. दगिने रके सिवाय धनके लोनसें कोश्कों व्याजसें धन न देना. चौरीका माल निश्चय हुवे पीने थोडे मोलसे मि खता होय तो जी न लेना. सरस निरस वस्तुका नेल सेल न करना चोर, चंमाल, मलीन परिणाम वाला, धर्मन्तृष्ट, श्नोंके साथ श्ह लोक परलोकके सुख वांढकोंने व्यवहार न करना. विवेकी जन विक्रय समय असत्य न बोले. और लेने के समय अपने वचनकीकबुलातकों लोपनही करे. __ अदृष्ट वस्तुका सट्टा नहि करना. सोना, चांदी हीरा मणि प्रमुख पदार्थोंकी सत्यसत्य परिक्षा कीये विना लेना नही. राज बल सिवाय अनर्थ और विपत्तीका निवार ण दोशक्ता नही इस्के लिए राज्यमें मैत्रता, परिच य, रखनी चाहिये परं राज्यमे पराधीन न होना (स्वाधीन रहना योग्य हे.) तपस्वी, कवि, वैद्य, मर्मका जानकार, रसोइ क. रनेवाला, मंत्रवादी, अपने पूज्य ( माता पिता धर्म गुरु विद्यागुरु ) इनपर क्रोध न करना अव्यार्थी पुरु
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy