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________________ तृतीयपरिच्छेद. २४३ उपर अवश्य श्रादरवंत होना चहिये. क्योंकी सुननेसे, देखनेसें, करनेसें, दूसरोंसें करानेसें, अनुमो दनेसें यह धर्म सातों कुलकों निश्चय पवित्र करताहे. धर्म, अर्थ, काम, यह तीन वर्गके साधन विना यह मनुष्य जन्म पशुवत् निष्फल हे. तीन वर्गके साधनमें धर्म वर्गको अधिक साधन करना क्योंकी धर्मवर्ग बिना और काम न प्राप्त होशक्कें हे मनुष्यजव, यार्यदेश, उत्तमजाति, सर्व इंद्रियोंकी सुदृढता, परिपूर्ण दीर्घायुष, इतनी चिजें विना पुण्य प्राप्त न होशक्ती दे. कदापि पुण्ययोग सें उपरोक्त मील शक्तेदें. तथापि वीतरागके वचन पर श्रद्धा होनी दुर्लन हे. कदापि श्रद्धा होती है तथापि सुगुरुका योग सुपुष्य विना मिल शक्ता नही है. न्याय राजा, सुगंधसे पुष्प, उत्तम पदार्थसें, जोजन ज्यों शोजनीक होताहे त्यों उपरोक्त वस्तु जी सदाचार सेंहि शोजनीक होती है. सदाचार तत्पर पुरुष शास्त्रोक्त विधिसें परस्पर विरोध करके तीनों वर्गका खुसीसें साधन कर शक्ता हे. पंकित पुरुष रात्रिके चतुर्थ प्रहरसें वा पीबली दो घमी रात्रि उठे. निद्राको त्याग कर पंचपरमेष्टी मंत्र पढे. दक्षिण अथवा वाम दोनोमेंसें जो नाशिका वहती होय उस तरफका पग शय्यासें उती बख्त प्रथम धरती पर धरे. शय्याकों और शयन के वस्त्रोंका त्याग करके दूसरे शुद्ध वस्त्र
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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