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________________ द्वितीयपरिच्छेद. २३५ पांच ली करनी. सिद्धपद गुणना. तपके दिन रूषनदेवकी मूर्तिको अखं पुष्प माला चढानी. नवीन नवीन नैवेद्य ढोकना उद्यापनमे एक चांदीका वृक्ष बनाके उस्की शाखामे सोनेका पारणा लटकावै. रेसमकी पाटसे रेसमी तलाइ रखके उसमे सुवर्ण मय पुतली रखके जिन मंदीरमे ढोकना. रुषदेवकी पूजा करना. ज्ञान गुरु संघनक्ति करना. ॥ पंचमेरु तप ॥ एक मेरुके एकांतर पांच उपवास करना. सुदर्शन मेरुका नाम गुणणा. दुसरे बखत पांच उपवासमे विजय मेरु गीणना. तीसरे पांच उपवासमे अचल मेरु गिणना | चोथी वारके पांच उपवासमे मंदिर मेरु नाम गिणना. पांचमी वार पांच उपवासमें विद्युन्माली मेरु नाम गिना. इस्मे निरंतर करेतो २५ उपवास और २५ पारणा मिलके पचास दिनमे तप पूरा होय. उद्यापनमे सुवर्ण मय मेरु बनाके मंदीरमे रखना. २५. २५. बस्तु ढोकना. ज्ञान गुरु संघ जक्ति करना. ॥ बडा समवसरण तप ॥ प्रथम चार उपवास करके पारणे एकासा न बनेतो बियासणा करणाएसी चार डेली करते पजुषण की पंचमी के दिन पारणावे तेसें तप करणा. एसे चार वर्ष करने से ए तप पुरा होता. उद्यापनमे यथा शक्ति ज्ञान गुरु संघक्ति करे.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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