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________________ प्रथमपरिच्छेद. १६१ तरत जाने वस्साकारेण संदिस द जगवन् राइ पक्किमणें गए मं राईज्ञान दर्श न चारित्र तप, वीर्य तिचार चिंतवनार्थ करे मि कारसग्गं, एम कहि एक नवकार गणी, करेमि नंते ० इच्छामि गमि० तस्स उत्तरी० कही पी नाणं मिनो काउस्सग्ग करीये. पबी देवसिनी पेठे सर्व पाठ कहिये. परंतु ज्यां चार लोगस्सनो काउस्सग्ग यावे, ते स्थानके वरसी तपनो का - रसग्ग करी, प्रगट लोगस्स कही, पबी वे वादणां प्रापीने यथाशक्ति पच्चख्खाण लीजे.तेवार पबी स्तवन, सघायो, प्रजातनां केदेवाता दोयते देवा. त्यारी नंद कदेवी ॥ इति ॥ अथ पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि ॥ प्रथम तो देवसिनी पेठे वंदिता सुधी सर्व कदेवं, च्यालोच्यंतो निदंतों, देवसिय आलो एमि, पख्ख जमि, ए रीत कदेवु, पी त्याथी पाठुं वली वे खामणाथी मांगीने चार लोग्गस्स ना काजस्सग्ग पर्यंत कदेवं, पण चार लोग्गस्सने ठेका दीं बार लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, ने बडो पच्चख्खाण आवश्यक यावे २१
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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