SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमपरिछेद. १४१ र्वज्ञ, श्रीवीतराग देव ॥ मुह दी परमेसर, सुं दर सोम सदाव ॥ नूरि नवंतर संचिउँ,नहो सो सवि पाव ॥ जे में पाप किया बालपणे, अ हवा अन्नाणे ॥ अणनवंतर सो सोखंडज यो परमेसर तुद मुंद दिवं सिरि पास जिणेसर ॥ पास पसी पसान करी वीनतमी अवधार ॥ संसारडो बीदामणो स्वामीआवा गमणनिवार॥ दबडाते सुलकणा जेजिनवर पूजंत॥ एके पुस्मे बाहिरा सो परघर काम करंत कवणेवामीवाविया कवणे गुंथ्यां फूल ॥ कवणे जिनवर चाढिया नाव सरीसां मुल ॥ वामी वेलो महोरीयो सोवन कुंपलीए ॥ पास जिणेसर पूजिये पंचेअंगु लीए ॥ दो धोला दो सामला दो रत्तोपल वन्न मरगय वन्ना मुन्नि जिण सोलस कंचनवन्न ॥ नियनिय मान करावियां, नरदेस रनयणानंद॥ ते में नावें वंदिया, ए चोवीसे जिणंद ॥ ॥वतु ॥ कम्मनूमीहिं, कम्म जुमीहिं, पढम संघयणि, उक्कोसयसत्तरिसय, जिणवराण विद रंत खप्नई,नवकोमीहिं केवलीण ॥कोमीसहस्स नव साहु गम्मइ, संप जिणवर वीस मुणि;
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy