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________________ १०६ जैनधर्मसिंधु. य शांतिनुं कहे. सद्यायने ठेकाणेनवसग्गदरं तथा संसारदावानी थोयो चार कदेवी. अने लघुशांतिने ठेकाणे महोटी शांति कहेवी॥ शति परिकप्रतिक्रमणविधिः ॥ ॥ अथ चनम्मासीप्रतिक्रमणविधिः॥ ॥ए उपर कह्या मुजब परकीना विधि प्रमा णे करवू, पण एटलुं विशेष जे बार लोगस्सना कानस्सग्गने ठेकाणे वीश लोगस्सनो कानस्स ग करवो, अने परकीना आगारने ठेकाणे चन मासीना केहवा तथा तपने ठेकाणे बहेणं बेन पवास, चार आंबिल, नीवि, आठ एकास णां शोल बे आसणां, चार हजार सनाय, ए रीते कहीये ॥ इति॥ ॥अथ संवत्सरीप्रतिक्रमणविधिः॥ ॥ए पण उपर लख्या मुजब परकीना विधि प्रमाणे करवू, पण बार लोगस्सना कानस्सग्ग ने ठेकाणे चालीस लोगस्सनो कानसग्ग तपनें ठेकाणे अहम नत्तं एटले त्रण उपवास, ब आं बिल नव नीवि, बार एकासणां, चोवीस बे आ सणां, अने उ हजार सद्याय ए रीतें कहे," ने
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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