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________________ प्रथमपरिछेद. ए वमाय गन धरीय ॥ वि० ॥ ४॥ पापी अन्न व्यीन नजर देखे, हिंसक पण नहरीये॥वि०॥ || नई संथारो ने नारी तणो संग, दूरथकी परिहरीय वि०॥६॥ सचित्त परिदारीनं एकल आहारी, गुम माथे पद चरीयें ॥विण॥॥पनि कमणा दोय विधिशुं करीये,पाप पमल विखहर। ये॥वि॥॥ कलिकालें एतीरथमोटुं, प्रवद ए जिम नव दरीए वि०॥॥नत्तम ए गिरि घर मेवंतां पद्मकहे नव तरीयविमल ॥१॥ ॥ अथ श्री सिघाचलजीन स्तवन । ॥ आंखडीय रे में आज, शत्रुजो दीगेरे॥ सवा लाख टकानो दहामो रे, लागे मुने मी वारे॥अांकणी॥ सफल थयो मारा मननो जमाहो ॥ वाला मारा।नवनो संशय नांग्यो रे। नरक तिर्यंच गति दूर निवारी, चरणे प्रनु जीने लाग्यो रे ।। शत्रं ॥१॥ मानवनवनो लाहो लीधो॥ वा० ॥ देहडी पावन कीधी रे॥ सोना रूपाने फूलडे वधावी, प्रेमे प्रददीणा दीधी रे ॥ शत्रु ॥७॥धडे पखालीने केशर घाली ॥ वा० ॥ श्री आदीश्वरपूज्यारे ॥ श्रीसि,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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