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________________ और को वरण न करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। अब वह दीक्षा लेने को तत्पर है। राजा ने दीक्षा पूर्व शास्त्र ज्ञान के लिए उसे यहां रखा है। इसका शील व चरित्र निर्दोष व परम पवित्र है। वार्तालाप पूर्ण हो जाने पर बसंतमाला ने पांडवों के साथ की स्त्री से उनका परिचय जानना चाहा; तब कुन्ती ने अपना छद्म परिचय देकर अपने को ब्राह्मण बतलाया व कहा कि हे पुत्री इसी प्रकार शील व धर्म के व्रतों का पालन करती रहो। तुम्हें दीक्षा के विचार का परित्याग कर अपने चित्त को श्रावक धर्म के व्रतों में लगाना श्रेयस्कर होगा। संभव है कि तुम्हारे पुण्य प्रताप से पांडव गण वहां से जीवित बच निकले हों। ऐसा कहकर वे सभी पांडव वहां से गमन कर त्रिभंग नगर आ पहुँचे। यहां के नगर के नरेश का नाम चंडवाहन व उसकी महारानी का नाम विमलप्रभा था। इनके गुणप्रभा, सुप्रभा, ह्रीं, श्री, रति, पदमा, इन्द्रीवरा, विश्वा, आश्चर्या व अशोका नाम की 10 सुन्दर कन्यायें थीं। ये सभी कन्यायें रूपवती, शीलवती, गुणवती, सुशिक्षित व विदुषी थीं। जब राजा ने निमित्तज्ञानी से इन पुत्रियों के विवाह के बारे में जानना चाहा तो निमित्तज्ञानी ने इस दसों कन्याओं के लिए योग्य वर पांडु पुत्र युधिष्ठिर को ही बतलाया था। परन्तु पांडवों के विषय में दुखद समाचारों से सभी दुखी थे। इसी नगर में प्रियमित्र पत्नी सौमनी सेठ के भी नयन सुन्दरी नाम की कन्या थी। निमित्त ज्ञानी ने इसका पति भी युधिष्ठिर बतलाया था। वे कन्यायें अब विरक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर थीं। वे संकल्पानुसार युधिष्ठिर को ही अपना मनोनीत पति मानकर संयम व्रत धारण करतीं थीं। उन्हें एक दिन जिनालय में दमतारि नाम के मुनिराज के दर्शन हुए। जब उन कन्याओं ने दीक्षा हेतु उनसे अनुरोध किया। तब मुनिराज ने उन्हें इस कम उम्र में ऐसा कठोर निर्णय लेने के पूर्व विचार करने हेतु कहा। तब सभी 11 कन्याओं ने उन्हें अपनी व्यथा बताकर कहा कि जब पांडव ही नहीं हैं तो विवाह कैसा? तब मुनिराज बोले-रूको-थोड़ी ही देर में पांचों पांडव यहीं 86 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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