SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस सुरंग का रहस्य बता दिया। पर दोनों ने ही इस सुरंग को . स्वयं कभी नहीं देखा था। ___ तब कभी समय पाकर दुर्योधन ने अपने विश्वस्त मंत्री से विचार विमर्श कर अर्ककीर्ति नाम के कोटपाल को, जो उसका परम विश्वासपात्रं था, से कहा कि तुम इस लाक्षागृह को आग के हवाले कर दो। पांडवों के भस्म होने पर मैं तुम्हारी सभी मनोकामनायें पूरी कर दूंगा। दुर्योधन की यह बात सुनकर कोटपाल आश्चर्य से भर गया व उसने ऐसा करने से मना कर दिया। पुनः दुर्योधन के धमकाने पर वह बोला कि चाहे आप मेरा सिर धड़ से अलग कर दें, पर मैं ऐसा जघन्य कार्य नहीं कर सकता। उसका यह जवाब सुनकर दुर्योधन ने उसे कारागार में डाल दिया। इसके बाद दुर्योधन ने अपने दूसरे विश्वासपात्र पुरोहित को इस कार्य के लिए बुलवा लिया। दुर्योधन यह भलीभांति जानता था कि लोभी प्रवृत्ति का यह पुरोहित इस कार्य को मना नहीं करेगा। अतः उसने उसे लोभ व लालच देकर लाक्षागृह में आग लगाने का दायित्व सौंप दिया। विप्र लोभ में आ गया। लोभ समस्त पापों का मूल कारण है। उस लोभी ने पांडवों के उस महल में रात्रि में चारों ओर से अग्नि प्रज्वलित कर दी, मानों उस विप्र ने महल के साथ ही मनुष्यत्व एवं ब्राह्मणत्व की भी अग्नि में आहुति दे दी हो। शीघ्र ही वह विशाल लाक्षागृह धू-धू कर जलने लगा। इधर महल धू-धू कर जल रहा था, उधर पांडव रात्रि में उसी महल में सूखपूर्वक सो रहे थे। जब आग की लपटें महल के अंत:प्रांगण में पहुँची, तब जाकर पांडवों की नींद टूटी। तब तक दीवारें ढह-ढह कर गिरना प्रारंभ हो गई थीं। जब पांडवों को बचने का कोई उपाय न सूझा, तब युधिष्ठिर जिनेन्द्रदेव का ध्यान करने लगे। तभी कुन्ती भी निद्रा से जाग गई व चारों ओर अग्नि देखकर चकरा गई। इस असामयिक विपत्ति को देखकर सभी पांडव अति व्याकुल उठे। तभी भीम की निगाह एक दरार पर पड़ी; जिस पर एक विशाल शिला रखी हुई थी। बलशाली भीम ने उस 82 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy