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________________ पर वे सभी अपनी सेनाओं के साथ इस भीषण अग्नि में जलकर निःशल्य हो गये हैं। यह भीषण अग्नि उन्हीं लोगों के आत्मदाह करने से फैली है। पर मुझे अपना जीवन प्रिय होने से मैं अपने स्वामी के कुमरण से दुखी होकर रो रही हूँ। वह बुढ़िया रोती हुई आगे बोली कि इस अग्नि में यदुवंशी, भोजवंशी आदि सभी राजा समर्पित हो गये । जरासंध उस बुढ़िया की बातों पर विश्वास कर व शत्रु का संपूर्ण विनाश मानकर संतुष्ट हो गया। इस संपूर्ण घटनाक्रम को भरत क्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपने दिव्य सामर्थ्य से विक्रिया द्वारा उपस्थित किया था। फिर जरासंध निश्चिंत होकर वहां से वापिस अपने नगर को लौट गया व वहां निश्चिंतता पूर्वक शासन करने लगा। दूसरी ओर यादव नरेश अपने दल-बल के साथ विंध्याचल को पार कर पश्चिम दिशा की ओर मुड़ कर सौराष्ट्र देश के समुद्र तट पर जा पहुँचे। जहां समुद्र की उत्तंग लहरें ऐसी जान पड़ती थीं, मानों वे नेमि कुमार तीर्थंकर बालक के पाद - प्रक्षालन को उत्सुक हों । श्रीकृष्ण ने समुद्र में मार्ग पाने की अभिलाषा से आठ दिन का उपवास किया व देवयोग से नैगम नाम के एक देव ने श्रीकृष्ण से कहा कि इस सुन्दर अश्व का रूप धारण किये देव पर सवार हो जाइये। यह समुद्र आपको मार्ग देने को बाध्य होगा। श्रीकृष्ण उस अश्व पर सवार हो गये। समुद्र ने रास्ता दे दिया। श्रीकृष्ण बारह योजन तक उस अश्व पर सवार होकर समुद्र की ओर चले गये व शीघ्र ही उस स्थान पहुँच गये, जहां इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने तीर्थंकर नेमिकुमार के लिए बाइस योजन का सुन्दर नगर निर्मित किया था। इस नगर के परकोट में अनेक द्वार होने से इस मनोरम नगरी का नाम द्वारावती / द्वारिका था । स्वर्गोपम विभूतियों से सम्पन्न यहां के राजप्रसादों में महाराजा समुद्रविजय आदि के साथ नारायण श्रीकृष्ण सुख शान्ति से रहने लगे । इस नगरी के बीचों-बीच आग्नेय आदि दिशाओं में समुद्रविजय आदि सभी दस भाइयों के अलग अलग महल थे। अठारह संक्षिप्त जैन महाभारत 73
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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