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________________ सुनकर पांडु सोच में पड़ गये कि मैंने इस निरपराध मूक हिरण की हत्या कर बड़ा ही क्रूर कार्य किया है। इस प्रकार संसार की विचित्र दशा को सोचते-सोचते वे अचेत हो गये। चेतना वापिस आने पर कुछ दूरी पर उन्हें सुव्रत नाम के महा ऋद्धिधारी मुनिराज के दर्शन हुए। वे जितेन्द्रिय व क्षमाशील थे। वे साम्यमूर्ति, उद्भट विद्वान एवं क्षेमंकर थे। वे दुर्धर तपस्वी थे। उनके समीप आते ही पांडु उनके चरणों में गिर गये। इसके बाद पांडु ने उन्हें उच्चासन देकर विराजमान कराया। मुनिश्री ने धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देकर उन्हें संबोधित किया व मुनिधर्म के तेरह अंग-पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति-बतलाये व कहा कि मुनिधर्म के पालने से मोक्ष व श्रावक धर्म के पालने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। तुम्हारा मात्र 13 दिन का जीवन शेष बचा है। अतः अब सावधान होकर धर्म का पालन करो। इसमें ही तुम्हारा कल्याण है। इसके बाद पांडु ने घर आकर वन का सारा वृतांत अपने परिवार वालों को सुनाया व संपूर्ण परिवार को सांत्वना देकर एवं सांसारिक मोहमाया से अपने चित्त को विमुख कर नीर-क्षीर विवेक द्वारा शुभकारी धर्म ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने साधर्मी जनों को चार प्रकार का दान दिया व परिवार के सभी सदस्यों से क्षमा-याचना कर वन गमन कर गये। इसके बाद गंगा तट पर आकर पांडु ने मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली तथा वे आत्म-ध्यान में लीन हो गये। पंच परमेष्ठी का सदा ध्यान करते रहने से उनका हृदय उत्तमोत्तम भावों से पूर्ण हो गया। दु:सह परीषहों को सहन करने से उनका विलक्षण आत्मबल प्रकट हो गया। वह अपने मन मंदिर में निरंजन अरहंत देव को स्थापित कर सदा अर्चना किया करते थे। इसी अवस्था में उन्होंने अपने प्राणों का परित्याग किया व सौधर्म स्वर्ग में जन्म लिया। पांडु के पद चिन्हों पर चलकर माद्री ने भी गंगा तट पर ही संन्यास धारण कर लिया। घोर तत्पश्चरण कर उन्होंने अपने पति के साथ ही स्वर्ग को प्राप्त किया। 54 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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