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________________ आत्मा को नष्ट नही कर सकती। क्योंकि आत्मा तो निराकार, निर्विकार व निरंजन है तथा अमर भी। अतः वे अनित्यानुप्रेक्षा का चितवन करने लगे। उन पांडवों का वैराग्य स्थिर व अचल होने लगा। अब वे कर्मों का क्षय करने में समर्थ थे। मनोयोग के एकांत आश्रय से अत्यन्त अल्पकाल में ही तीनों ज्येष्ठ पांडव-युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर अधःकरण की आराधना करते हुए अपूर्वकरण पर जा पहुँचे। तत्पश्चात उन्होंने अनिवृत्तिकरण को प्राप्त किया तथा शुक्ल-ध्यान के माध्यम से समस्त कर्म प्रकृतियों एवं अघातियां कर्मों का भी नाशकर केवलज्ञानी बन गये तथा अंत में इस नश्वर शरीर को छोड़कर मोक्ष पद को प्राप्त हो गये। वे संसार चक्र की पंच बाधाओं व क्षुधा आदि अठारह दोषों से विमुक्त हो सिद्धालय में जाकर विराजमान हो गये। तब इन्द्र व देवताओं ने शत्रुन्जय पर्वत पर आकर उन तीन पाण्डवों का केवलज्ञान महोत्सव एवं निर्वाण महोत्सव मनाया। शेष दोनों लघु भ्राताओं- नकुल व सहदेव के चित्त में अपने बड़े भाइयों पर उपसर्ग के परिणाम स्वरूप कुछ आकुलता एवं अस्थिरता रह जाने के कारण उन्होंने इस घोर उपसर्ग को सहन कर देह का परित्याग किया। जिससे वे दोनों सर्वाथसिद्धि देवलोक में जाकर वहां उत्पन्न होकर देव बने। वे भविष्य में वहां से चयकर मनुष्य भव धारण कर आगे मोक्ष की ओर जायेंगे। इसी प्रकार राजमती, कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी, इत्यादि पवित्रात्मा नारियों ने भी दीर्घकाल तक धर्म-साधन में तत्पर रहकर सम्यकत्वपूर्वक अनेकविधि व्रतों को धारण कर आयु पर्यंत चारों आराधनाओं का अनुष्ठान किया व देह त्याग कर एवं स्त्री लिंग छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया। वे सामानिक देव बनीं। वे बाईस सागर पर्यंत वहां देवोपुनीत स्वर्गीय सुखों को भोगकर मनुष्य भव धारण कर तप व ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर शिवधाम को प्राप्त करेंगे। 176. संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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